समस्तीपुर:अगर आप भी समस्तीपुर के प्राइवेट हॉस्पिटल में अपने रोगियों का इलाज करवाते है तो आपको सावधान रहने की जरूरत है। समस्तीपुर का आदर्श नगर मोहनपुर काशीपुर इत्यादि बाजार यूं तो डॉक्टर नगरी के नाम से विख्यात है, जहां बड़े-बड़े बिल्डिंग हैं और अनेकों निजी अस्पताल चल रहे हैं लेकिन कई ऐसे हॉस्पिटल हैं,जहां इलाज के नाम पर लोगों को लूटा जा रहा है।ऐसा हम नहीं बल्कि लोग कहते हैं। ऐसे एक नहीं बल्कि कई मामले सामने भी आ चुके हैं।सेंट्रल क्लीनिकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट के तहत लागू एक बीमारी के इलाज के लिए एक फीस के नियम की शहर में खुलेआम धज्जियां उड़ायी जा रही हैं. शहर में यह एक्ट भले ही सितंबर 2013 से लागू है,लेकिन कोई भी नर्सिंग होम इसे मानने को तैयार नहीं है.इन्हीं कारणों से समस्तीपुर में चलने वाले नर्सिंग होम में जांच व इलाज के रेट में काफी अंतर है और इसका असर मरीज के आर्थिक जिंदगी पर पड़ता है.कारण आये दिन अस्पतालों में हंगामे होते रहते हैं. शहर के कई ऐसे हॉस्पिटल हैं, जिनका अब तक रजिस्टेशन भी नहीं हुआ है.आइसीयू या वार्ड में भरती मरीजों को सिर्फ बतायी जाती है रिपोर्ट या रेट:अस्पताल में मरीज भरती होता है.उसके बाद उसका क्या इलाज हो रहा उसकी जानकारी परिजनों को नहीं मिल पाती है.बस डॉक्टर आते हैं,इलाज करते हैं,जांच लिखते है और चले जाते हैं.बाद में मरीजों को रिपोर्ट के साथ बिल थमा दिया जाता है.कुछ काॅरपोरेट हॉस्पिटलों में मरीज भरती होते समय भी पैसे एडवांस में ले लिये जाते हैं,जो कब खत्म हो जाता है इसकी जानकारी भी उस वक्त मिलती है,जब परिजनों से पैसे मांगे जाते हैं.
डीलक्स और जेनरल के नाम पर हो रही लूट
प्राइवेट हॉस्पीटलों में जेनरल, रेग्युलर प्राइवेट और डीलक्स के नाम पर लुट हो रही है. सभी अस्पतालों में अलग-अलग वार्ड हैं. इसका चार्ज भी अलग-अलग है.जेनरल वार्ड का चार्ज प्राइवेट रूम से थोड़ा सा ही काम है।वहीं प्राइवेट,रूम का रेट काफी अधिक लिया जाता है.डीलक्स और रेग्युलर वार्ड का चार्ज काफी अधिक होने के कारण आम लोगों को जमीन से लेकर जेवर तक गिरवी रखना पड़ता है तभी मरीज का इलाज हो पाता है.
इनके लिए अलग से है रूम सुविधा के नाम पर अस्पतालों में सेपरेट रूम की भी व्यवस्था दी जा रही है.इससे मरीज और उनके परिजन को रूम से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती है. इस तरह की सुविधा लेने पर मरीजों को और अधिक रुपए देने पड़ते हैं.
कम कीमत के नहीं बनाये जाते वार्ड व रूम
मरीजों को बेहतर सुविधा कितनी अधिक मिल रही है, इसका अंदाजा समस्तीपुर के हॉस्पीटलों के बढ़ते दाम को देखकर लगाया जा सकता है.खत्म हो सकती है मान्यता:
क्लीनिकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट के उल्लंखन पर नर्सिंग होम की मान्यता भी रद्द की जा सकती है.दरअसल इनको मान्यता देते वक्त डॉक्टर की डिग्री,एक समान रेट, साफ-सफाई आदि सामान्य चीजें देखी जाती हैं. जांच करने पर यदि नर्सिंग होम तय रेट से अधिक लेते पाये गये या फिर गंदे स्थान में पाया जाता है, तो उसके उपर नियमानुसार कार्रवाई की जा सकती है.इसके बावजूद संचालकों के हौसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि उनको जांच होने का कोई डर नहीं है. बताते चलें कि अगर किसी भी स्पताल में आपका परिजन भर्ती हो तो कुछ ऐसे क़ानून है जिनकी जानकारी आपको होनी चाहिए वरना आपको अस्पताल में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 कंज्यूमर राइट एक्टिविस्ट और लेखिका पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता होने के नाते हम देश के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (1986) क़ानून के तहत अपने अधिकार की लड़ाई लड़ सकते हैं. हालांकि हमारे देश में पेशेंट राइट नाम का कोई कानून नहीं है. लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भी हमारे अधिकारों की सुरक्षा करने के लिए काफी है.सूचना का अधिकार कानून 2005
पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक मरीज़ के परिजन के पास दूसरा सबसे बड़ा हथियार होता है सूचना का अधिकार. इस कानून के तहत सबसे पहले हमे डॉक्टर और अस्पताल से ये जानने का अधिकार होता है कि मरीज़ पर किस तरह का उपचार चल रहा है,अस्पताल की जांच में क्या निकल कर सामने आया है, हर टेस्ट की क्या कीमत है, मरीज़ को जो दवाइयां दी जा रही है उनका असर कब और कितना हो रहा है.
अगर मरीज़ ये सब पूछने की स्थिति में नहीं है,तो अस्पताल में साथ रह रहे परिजन इसकी जानकारी अस्पताल प्रशासन से मांग सकते है, और इस जानकारी को हासिल करना हम सबका अधिकार है.
इतना ही नहीं, आपको अधिकार है कि आप डॉक्टर की योग्यता और डिग्रियों के बारे में जानकारी हासिल कर पाएं.ये जानकारी आप अस्पताल प्रशासन से मांग सकते हैं.क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट 2010 इस अधिनियम के तहत हर अस्पताल, क्लिनिक या फिर नर्सिंग होम को रजिस्टर करना अनिवार्य होता है.साथ ही एक गाइडलाइन के तहत हर बीमारी के इलाज और टेस्ट की प्रक्रिया निर्धारित है और ऐसा न करने पर इस एक्ट में जुर्माने का प्रावधान भी है.हालांकि पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक सभी राज्यों ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है.
एक उपभोक्ता के नाते हमे ये पता करना चाहिए कि हमारे राज्य में ये कानून लागू है या नहीं.वरना जिस राज्य में ये लागू है वहां से पता करना चाहिए आपके मरीज को जो बीमारी डॉक्टर बता रहें है उसके इलाज की प्रक्रिया और टेस्ट क्या होने चाहिए।एमआरटीपी एक्ट 1969
इस कानून के तहत दवा विक्रेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए. इसके अनेक प्रावधानों के तहत आपको कोई भी अस्पताल वहीं से दवाइयां खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता.प्रोफेशनल कंडक्ट एंड एथिक्स एक्ट 2002:
मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने भी डॉक्टरों के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए है जिसमें अगर आपको इमरजेंसी में इलाज की ज़रूरत है तो कोई डॉक्टर इसके लिए आपको मना नहीं कर सकता जब तक फर्स्ट एड देकर मरीज की स्थिति खतरे से बाहर न कर लें.इसके आलावा इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के 2012 के संस्करण के मुताबिक किसी भी मरीज के पास उसकी बीमारी को गोपनीय रखने का अधिकार भी हर मरीज के पास है. इसका मतलब ये कि अगर आप नहीं चाहते कि आपके परिवार के दूसरे सदस्य को आपकी बीमारी के बारे में पता चले तो डॉक्टर किसी भी सूरत में आपके परिवार को आपकी बीमारी के बारे में नहीं बताएंगे.जर्नल में ये भी लिखा गया है कि मरीज़ अपने बीमारी के बारे में सेकेंड ओपिनियन या दूसरे डॉक्टर की सलाह ले सकता है. ऐसी सलाह के लिए कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज़ या परिजन को हतोत्साहित नहीं कर सकता है. लेकिन दोनों डॉक्टरों के सुझाव बिलकुल अलग पाए जाने पर ये मरीज़ और उनके परिजन पर निर्भर है कि वो किन के बताए रास्ते पर चलते हैं. ऐसी सूरत में किसी भी डॉक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है.इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में ये भी लिखा गया है कि ये डॉक्टर की जिम्मेदारी है कि हर ऑपरेशन / सर्जरी के पहले मरीज़/ परिजन को संभावित खतरे के बारे में पूरी जानकारी दे और उनसे सहमति पत्र पर दस्तखत भी ले.किसी भी दूसरे अस्पताल में मरीज़ को किसी भी सूरत में शिफ्ट करने के पहले मरीज़ या उसके परिजन को समय रहते इसकी सूचना मिलनी चाहिए ये मरीज़ का अधिकार है. ऐसी सूरत में मरीज़ की हालात खतरे से बाहर हो, ये सुनिश्चित करना डॉक्टरों का कर्तव्य है ये भी इस जर्नल में कहा गया है.
आखिर में आप चाहें तो मरीज़ से जुड़े इलाज की पूरी केस फाइल अस्पताल से मांग लें. अमूमन अस्पताल खुद ये देते नहीं है इसलिए बहुत जरूरी है कि मरीज़ अस्पताल से छुट्टी के समय ऐसा ज़रूर करें.